चीन में शिक्षा की नीति

创建时间:  2019-11-20     浏览次数:


चीन में शिक्षा की नीति

Byडॉ राजीव रंजन| Updated Date: Nov 20 2019 9:10AM

डॉ राजीव रंजन

प्राध्यापक, शंघाई विवि

mrajivranjan@gmail.com

अपनी साइकिल में हवा भरवाने के लिए शंघाई विवि के सिविल इंजीनियरिंग में एमएससी का एक छात्र कैंपस की दुकान में आया. साइकिल मिस्त्री ने ट्यूब चेक करके बताया कि कई पंक्चर हैं. फिर उसने कहा कि नया ट्यूब लगवा लो. छात्र ने कीमत पूछी, तो मिस्त्री ने एक की कीमत 29 आरएमबी (लगभग 290 रुपया) और दूसरे की 35 आरएमबी (350 रुपया) बताया. छात्र ने थोड़ी देर सोचा, फिर बोला, पंक्चर ही लगा दो. पंक्चर 70 रुपया का था. चाहे जेएनयू हो, शंघाई विवि हो या फिर अमेरिका का जॉन हॉपकिंस हो, एक छात्र की समस्या एक है- छात्र पैसा कहां से लाये. कर्ज लेकर पढ़ना तो बाजार का व्यापार है, राष्ट्र का निर्माण नहीं.

वह छात्र चीन के हनान प्रांत से था. वहीं जहां से ह्वेनत्सांग भारत आया और नालंदा विवि में शिक्षा हासिल की. हनान और बिहार की हालत एक जैसी है. जनसंख्या ज्यादा और कोई ढंग का उच्च शिक्षा संस्थान नहीं. न उद्योग हैं, न खेती लायक ज्यादा जमीन. शिक्षा और नौकरी के लिए वहां से लोग दूसरे प्रांत में पलायन कर जाते हैं.

चीन में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मुफ्त और उच्च कोटि की हैं. वहां माध्यमिक शिक्षकों का वेतन भी विवि से कम नहीं हैं, कहीं-कहीं तो ज्यादा है. सरकारी मुलाजिमों, नेताओं के बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं. ऐसा नहीं हैं कि ग्रामीण और शहरी वातावरण में अंतर नहीं है. लेकिन, चीन की सरकार इस बात की कोशिश कर रही है कि ग्रामीण छात्रों को भी शहरी छात्रों के समकक्ष लाया जा सके.

अधिकतर माध्यमिक विद्यालय आवासीय हैं. शंघाई में मेरे घर के पास एक माध्यमिक विद्यालय है. यहां पांच-सात हजार छात्र-छात्राएं पढ़ते होंगे. जब मैं नया आया था, तो पता ही नहीं चला कि कोई विद्यालय भी यहां है. सुबह या शाम में विद्यार्थियों का कोई हुजूम नहीं दिखता था. शुक्रवार की शाम कुछ बच्चे घर जाते हैं, फिर रविवार की शाम तक वापस.

कमोबेश यही हर स्कूल में होता है. यह विकास का एक प्रतिफल है. शहरों में मां-बाप के पास समय नहीं, तो बच्चे हॉस्टल में. लेकिन, यह व्यवस्था ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये बच्चों के लिए वरदान है. हैं तो ये सरकारी विद्यालय, लेकिन पढ़ाई किसी निजी विद्यालय से कम नहीं है. दिल्ली सरकार भी कोशिश कर रही है कि सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया करायी जाये. बिना किसी भेदभाव और ऊंच-नीच के सब बच्चों के लिए शिक्षा जरूरी है.

शिक्षा के क्षेत्र में भारत जैसा बाजारीकरण कहीं नहीं हैं. चीन में स्नातक की शिक्षा मुफ्त नहीं है, लेकिन सबको एक प्रवेश राष्ट्रीय परीक्षा (काओ खाओ) पास करनी होती है. चीनी विद्यार्थियों के लिए दु:स्वप्न है यह परीक्षा. वैसे ही जैसे भारत में मेडिकल या इंजीनियरिंग के लिए नीट, एम्स या आईआईटी, जेईई और राज्य स्तरीय कई परीक्षाएं हैं.

लेकिन चीन में कला और सामाजिक विज्ञान के लिए भी यही ‘काओ खाओ’ परीक्षा है. स्पर्धा टक्कर की होती है. आपके उच्च प्राप्तांक से किसी उच्च रैंकिंग वाले विश्वविद्यालय, जैसे बीजिंग, छिंगहुआ और फूदान आदि विश्वविद्यालयों में आपको नामांकन मिल सकता है, जो किसी भी चीनी विद्यार्थी का सपना होता है.

अल्पसख्यकों के लिए वहां प्राप्तांकों में विशेष छूट दी जाती है. ‘काओ खाओ’ की शुरुआत 1952 में हुई थी, लेकिन माओ के ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के दौरान स्थगित कर दिया गया था. फिर दंेग शिआओ पिंग ने 1977 में इसे शुरू कराया, जो अब प्रतिवर्ष आयोजित की जाती है. चीन के विवि विश्व स्तर की शिक्षा प्रदान करते हैं, जिससे युवाओं के भविष्य और करियर को अच्छी शुरुआत मिलती है. चीन में एक कहावत है- अगर आप चीन के राष्ट्रपति नहीं बन सकते, तो कम से कम छिंगहुआ विवि में पढ़ तो सकते ही हैं. छिंगहुआ ने चीन को कई राष्ट्रपति दिये हैं. तात्पर्य यह है कि काओ खाओ एक बहुत ही कठिन और प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा है.

आप आईआईटी में इंजीनियरिंग पढ़ें या पटना बीएन कॉलेज में राजनीतिक विज्ञान पढ़ें, पचास-साठ हजार रुपये एक साल की फीस है. स्नातक में सबको छात्रवृत्ति तो नहीं मिलती है, पर विश्वविद्यालय जरूरतमंदों को सहायता देता है. पानी मुफ्त है और कहीं 20 यूनिट, तो कहीं 80 यूनिट बिजली फ्री हर विद्यार्थी को मिलती है. परास्नातक की साठ हजार से एक लाख बीस हजार रुपये है. इतना ही सालाना छात्रवृत्ति भी है. वहीं लगभग हर विद्यार्थी को अपने सुपरवाइजर से कम से कम पांच हजार रुपया मासिक मिलता है, जो महीनेभर का खर्च है.

चीन में शिक्षा को लेकर आंदोलन हुआ है. पहले शिक्षा सिर्फ संभ्रांत परिवारों तक ही सीमित थी. चीन की 70वीं वर्षगांठ पर शिक्षा मंत्रालय ने एक डाॅक्यूमेंट्री बनायी- 'शिक्षा राष्ट्र को मजबूत बनाती है'. यह डॉक्यूमेंट्री चीनी सरकार के शिक्षा सुधारों और उसके परिणाम को बताती है.

आज विश्व में सबसे ज्यादा पेटेंट चीन में कराया जा रहा है, यह सब एक दिन में नहीं हुआ. इसके लिए पूरी रणनीति तैयार की गयी है. आज चीनी छात्र दुनिया के नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं. वहीं चीनी विवि भी विश्व रैंकिंग में अपनी पैठ बना रहे हैं.

शिक्षा किसी राष्ट्र की आधारशिला है. शिक्षा से ही किसी राष्ट्र और वहां रहनेवाले व्यक्ति के जीवन में आमूलचूल और सकारात्मक बदलाव आ सकता है. किसी देश का वर्तमान में शिक्षा पर किया गया खर्च उस देश के उज्ज्वल भविष्य का संकेत है.






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चीन में शिक्षा की नीति

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चीन में शिक्षा की नीति

Byडॉ राजीव रंजन| Updated Date: Nov 20 2019 9:10AM

डॉ राजीव रंजन

प्राध्यापक, शंघाई विवि

mrajivranjan@gmail.com

अपनी साइकिल में हवा भरवाने के लिए शंघाई विवि के सिविल इंजीनियरिंग में एमएससी का एक छात्र कैंपस की दुकान में आया. साइकिल मिस्त्री ने ट्यूब चेक करके बताया कि कई पंक्चर हैं. फिर उसने कहा कि नया ट्यूब लगवा लो. छात्र ने कीमत पूछी, तो मिस्त्री ने एक की कीमत 29 आरएमबी (लगभग 290 रुपया) और दूसरे की 35 आरएमबी (350 रुपया) बताया. छात्र ने थोड़ी देर सोचा, फिर बोला, पंक्चर ही लगा दो. पंक्चर 70 रुपया का था. चाहे जेएनयू हो, शंघाई विवि हो या फिर अमेरिका का जॉन हॉपकिंस हो, एक छात्र की समस्या एक है- छात्र पैसा कहां से लाये. कर्ज लेकर पढ़ना तो बाजार का व्यापार है, राष्ट्र का निर्माण नहीं.

वह छात्र चीन के हनान प्रांत से था. वहीं जहां से ह्वेनत्सांग भारत आया और नालंदा विवि में शिक्षा हासिल की. हनान और बिहार की हालत एक जैसी है. जनसंख्या ज्यादा और कोई ढंग का उच्च शिक्षा संस्थान नहीं. न उद्योग हैं, न खेती लायक ज्यादा जमीन. शिक्षा और नौकरी के लिए वहां से लोग दूसरे प्रांत में पलायन कर जाते हैं.

चीन में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मुफ्त और उच्च कोटि की हैं. वहां माध्यमिक शिक्षकों का वेतन भी विवि से कम नहीं हैं, कहीं-कहीं तो ज्यादा है. सरकारी मुलाजिमों, नेताओं के बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं. ऐसा नहीं हैं कि ग्रामीण और शहरी वातावरण में अंतर नहीं है. लेकिन, चीन की सरकार इस बात की कोशिश कर रही है कि ग्रामीण छात्रों को भी शहरी छात्रों के समकक्ष लाया जा सके.

अधिकतर माध्यमिक विद्यालय आवासीय हैं. शंघाई में मेरे घर के पास एक माध्यमिक विद्यालय है. यहां पांच-सात हजार छात्र-छात्राएं पढ़ते होंगे. जब मैं नया आया था, तो पता ही नहीं चला कि कोई विद्यालय भी यहां है. सुबह या शाम में विद्यार्थियों का कोई हुजूम नहीं दिखता था. शुक्रवार की शाम कुछ बच्चे घर जाते हैं, फिर रविवार की शाम तक वापस.

कमोबेश यही हर स्कूल में होता है. यह विकास का एक प्रतिफल है. शहरों में मां-बाप के पास समय नहीं, तो बच्चे हॉस्टल में. लेकिन, यह व्यवस्था ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये बच्चों के लिए वरदान है. हैं तो ये सरकारी विद्यालय, लेकिन पढ़ाई किसी निजी विद्यालय से कम नहीं है. दिल्ली सरकार भी कोशिश कर रही है कि सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया करायी जाये. बिना किसी भेदभाव और ऊंच-नीच के सब बच्चों के लिए शिक्षा जरूरी है.

शिक्षा के क्षेत्र में भारत जैसा बाजारीकरण कहीं नहीं हैं. चीन में स्नातक की शिक्षा मुफ्त नहीं है, लेकिन सबको एक प्रवेश राष्ट्रीय परीक्षा (काओ खाओ) पास करनी होती है. चीनी विद्यार्थियों के लिए दु:स्वप्न है यह परीक्षा. वैसे ही जैसे भारत में मेडिकल या इंजीनियरिंग के लिए नीट, एम्स या आईआईटी, जेईई और राज्य स्तरीय कई परीक्षाएं हैं.

लेकिन चीन में कला और सामाजिक विज्ञान के लिए भी यही ‘काओ खाओ’ परीक्षा है. स्पर्धा टक्कर की होती है. आपके उच्च प्राप्तांक से किसी उच्च रैंकिंग वाले विश्वविद्यालय, जैसे बीजिंग, छिंगहुआ और फूदान आदि विश्वविद्यालयों में आपको नामांकन मिल सकता है, जो किसी भी चीनी विद्यार्थी का सपना होता है.

अल्पसख्यकों के लिए वहां प्राप्तांकों में विशेष छूट दी जाती है. ‘काओ खाओ’ की शुरुआत 1952 में हुई थी, लेकिन माओ के ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के दौरान स्थगित कर दिया गया था. फिर दंेग शिआओ पिंग ने 1977 में इसे शुरू कराया, जो अब प्रतिवर्ष आयोजित की जाती है. चीन के विवि विश्व स्तर की शिक्षा प्रदान करते हैं, जिससे युवाओं के भविष्य और करियर को अच्छी शुरुआत मिलती है. चीन में एक कहावत है- अगर आप चीन के राष्ट्रपति नहीं बन सकते, तो कम से कम छिंगहुआ विवि में पढ़ तो सकते ही हैं. छिंगहुआ ने चीन को कई राष्ट्रपति दिये हैं. तात्पर्य यह है कि काओ खाओ एक बहुत ही कठिन और प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा है.

आप आईआईटी में इंजीनियरिंग पढ़ें या पटना बीएन कॉलेज में राजनीतिक विज्ञान पढ़ें, पचास-साठ हजार रुपये एक साल की फीस है. स्नातक में सबको छात्रवृत्ति तो नहीं मिलती है, पर विश्वविद्यालय जरूरतमंदों को सहायता देता है. पानी मुफ्त है और कहीं 20 यूनिट, तो कहीं 80 यूनिट बिजली फ्री हर विद्यार्थी को मिलती है. परास्नातक की साठ हजार से एक लाख बीस हजार रुपये है. इतना ही सालाना छात्रवृत्ति भी है. वहीं लगभग हर विद्यार्थी को अपने सुपरवाइजर से कम से कम पांच हजार रुपया मासिक मिलता है, जो महीनेभर का खर्च है.

चीन में शिक्षा को लेकर आंदोलन हुआ है. पहले शिक्षा सिर्फ संभ्रांत परिवारों तक ही सीमित थी. चीन की 70वीं वर्षगांठ पर शिक्षा मंत्रालय ने एक डाॅक्यूमेंट्री बनायी- 'शिक्षा राष्ट्र को मजबूत बनाती है'. यह डॉक्यूमेंट्री चीनी सरकार के शिक्षा सुधारों और उसके परिणाम को बताती है.

आज विश्व में सबसे ज्यादा पेटेंट चीन में कराया जा रहा है, यह सब एक दिन में नहीं हुआ. इसके लिए पूरी रणनीति तैयार की गयी है. आज चीनी छात्र दुनिया के नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं. वहीं चीनी विवि भी विश्व रैंकिंग में अपनी पैठ बना रहे हैं.

शिक्षा किसी राष्ट्र की आधारशिला है. शिक्षा से ही किसी राष्ट्र और वहां रहनेवाले व्यक्ति के जीवन में आमूलचूल और सकारात्मक बदलाव आ सकता है. किसी देश का वर्तमान में शिक्षा पर किया गया खर्च उस देश के उज्ज्वल भविष्य का संकेत है.






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